ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ?
साथ तो आखिर तू भी छोड़ जाता है ।
भिन्न पृकार के मोह में डालकर,
क्यों फिर आखिर, हर माया छुड़वाता है ?
ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ?
लेकर आता है इस संसार में तू ही ,
तू ही इससे नाता तुड़वाता है ।
लाता तो है सब को रुलाकर,
और जाते हुए चुप करा जाता है !
ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ?
है तो तू बहुत ही खूबसूरत ,
पर क्यो इतने जतन करवाता है ?
अपने फूलो की इस बगिया में ,
तू क्यो इतने कॉटे लगाता हैं ?
ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ?
तू हैं तो हम सभी का चालक,
पर सबको अलग रस्ते ले जाता हैं।
किसी के रस्ते खूब कड़ी धूप ,
तो किसी को छॉंव दिखलाता हैं।
ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ?
हंसाता मी तू है , रुलाता भी तू हैं।
क्या बुरा क्या भला, सिखलाता भी तू हैं।
तरह तरह के रास रचाकर,
तू क्यों सबको इतना नचाता हैं ?
ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ?
पर फिर ये एक खयाल आता है ,
कि तू ही तो अपनो से मिलाता हैं ,
उन चेहरों को देखकर, फिर समझ में आता हैं !
कि तू क्यों यूँ इतराता हैं...
तू क्यों यूँ इतराता हैं ...
