Thursday, February 19, 2015

" ऐ जीवन ! "

ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ? 
साथ तो आखिर तू भी छोड़ जाता है ।
भिन्न पृकार के मोह में डालकर,
क्यों फिर आखिर, हर माया छुड़वाता है ?

ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ? 

लेकर आता है इस संसार में तू ही , 
तू ही इससे नाता तुड़वाता है ।
लाता तो है सब को रुलाकर, 
और जाते हुए चुप करा जाता है !

ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ? 

है तो तू बहुत ही खूबसूरत , 
पर क्यो इतने जतन करवाता है ? 
अपने फूलो की इस बगिया  में , 
तू क्यो इतने कॉटे लगाता हैं ? 

ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ? 

तू हैं तो हम सभी का चालक,
पर सबको अलग रस्ते ले जाता हैं। 
किसी के रस्ते खूब कड़ी धूप ,
तो किसी को छॉंव दिखलाता हैं। 

ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ? 

हंसाता मी तू है , रुलाता भी तू हैं। 
क्या बुरा क्या भला, सिखलाता भी तू हैं। 
तरह तरह के रास रचाकर,
तू क्यों सबको इतना नचाता हैं ? 

ऐ जीवन, तू क्यों यूं इतराता है ? 

पर फिर ये एक खयाल आता है , 
कि तू ही तो अपनो से मिलाता हैं , 
उन चेहरों को देखकर, फिर समझ में आता हैं ! 
कि तू क्यों यूँ  इतराता हैं... 
तू क्यों यूँ  इतराता हैं ...